वर्तमान में तन्त्र अपने वास्तविक अर्थ को खो चुका है | जबकि तन्त्र
के माध्यम से अपने जीवन तथा दूसरों के जीवन में भी क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जा
सकता है | आम तौर पर तन्त्र का परिचय पंच “ म ” कार के सेवन के तौर पर मिलता है
किन्तु आज पंच “ म ” कार अपना वास्तविक अर्थ खो चुका है | पंच “ म ”
कार है – मद्य , मांस , मुद्रा , मीन (मत्स्य ) तथा मैथुन |
इन पंच “ म ” कारों का
तन्त्र में सेवन का विधान है | लेकिन इसका वास्तविक अर्थ क्या है आइये इस पर विचार
करते हैं –
मद्य
आगमसार के अनुसार
मद्यपान किसे कहते हैं ----
"सोमधारा क्षरेद या तु ब्रह्मरंध्राद वरानने|
पीत्वानंदमयास्तां य: स एव मद्यसाधक:||
"सोमधारा क्षरेद या तु ब्रह्मरंध्राद वरानने|
पीत्वानंदमयास्तां य: स एव मद्यसाधक:||
जिह्वा मूल या तालू मूल में
जिह्वाग्र ( जीभ का अगला भाग ) को सम्यकृत करके ब्र्ह्मारंध्र ( सिर के चोटी से )
से झरते हुए आज्ञा (भ्रू मध्य ) चक्र के चन्द्र मंडल से हो कर प्रवाहमान अमृतधारा को
पान करने वाला मद्य साधक कहा जाता है |
यह
है वास्तविक मद्यपान |
मांस
आगमसार के अनुसार मांससाधक
--
"माँ शब्दाद्रसना ज्ञेया तदंशान रसना प्रियान |
सदा यो भक्षयेद्देवि स एव मांससाधक: ||"
"माँ शब्दाद्रसना ज्ञेया तदंशान रसना प्रियान |
सदा यो भक्षयेद्देवि स एव मांससाधक: ||"
म का अभिप्राय जिह्वा से है शब्दों
पर या वाणी पर नियन्त्रण रखने वाला मांस साधक कहलाता है | जागतिक प्रपंच से वाक्
निवृति करने वाला मांस साधक होता है | खेचरी मुद्रा लगाने वाला साधक मांस साधक
होता है क्योंकि खेचरी मुद्रा लगाने से बात करने या बोलने का विकल्प समाप्त हो
जाता है और मन सदैव खेचरी मुद्रा के क्रिया पर हीं लगा होता है |
यह है मांस साधना का अभिप्राय |
मत्स्य
आगमसार
के अनुसार --
"गंगायमुनयोर्मध्ये मत्स्यौ द्वौ चरत: सदा|
तौ मत्स्यौ भक्षयेद यस्तु स: भवेन मत्स्य साधक:||"
"गंगायमुनयोर्मध्ये मत्स्यौ द्वौ चरत: सदा|
तौ मत्स्यौ भक्षयेद यस्तु स: भवेन मत्स्य साधक:||"
मत्स्य का अभिप्राय साँस के
नियन्त्रण से है | इडा ( बायाँ नथुना ) रूप गंगा तथा पिंगला ( दायाँ नथुना ) रूपी
यमुना में स्वांस और प्रस्वांस रूप दो मत्स्यों का निवास माना जाता है | ई श्वांस
प्रश्वांस का नियन्त्रण करने वाला और शुष्मना ( दोनों श्वांसों का साथ चलना ) में
श्वांस चलाने वाला मत्स्य साधक होता है |
मुद्रा
आगमसार के अनुसार "मुद्रा" –
"सहस्त्रारे
महापद्मे कर्णिका मुद्रिता चरेत|
आत्मा तत्रैव देवेशि केवलं पारदोपमं||
सूर्यकोटि प्रतीकाशं चन्द्रकोटि सुशीतलं|
अतीव कमनीयंच महाकुंडलिनियुतं|
यस्य ज्ञानोदयस्तत्र मुद्रासाधक उच्यते||"
आत्मा तत्रैव देवेशि केवलं पारदोपमं||
सूर्यकोटि प्रतीकाशं चन्द्रकोटि सुशीतलं|
अतीव कमनीयंच महाकुंडलिनियुतं|
यस्य ज्ञानोदयस्तत्र मुद्रासाधक उच्यते||"
सहस्त्रार के महापद्म
में कर्णिका के भीतर पारद की तरह स्वच्छ निर्मल करोड़ों सूर्य-चंद्रों की आभा से भी
अधिक प्रकाशमान ज्योतिर्मय सुशीतल अत्यंत कमनीय महाकुंडलिनी से संयुक्त जो आत्मा
विराजमान है उसे जिन्होंने जान लिया है वे मुद्रासाधक हैं|
मैथुन
यामल तंत्रनुसार मैथुन -
शहस्त्रारे बिन्दु
कुंडली मिलानाछिवे ,
मैथुनम परम दिव्यं यातिनाम परिकीर्तितं ....
मैथुनम परम दिव्यं यातिनाम परिकीर्तितं ....
अर्थात मूलाधार से उठकर
कुंडलिनी रूपी शक्ति का शहस्त्रार स्थित परम ब्रह्म शिव से सायुज्य ही मैथुन है |
तन्त्र शास्त्र में सृष्टि और संहार के विषय में चिन्तन करना मैथुन
कहलाता है | पराशक्ति और जिव के संयोग को भी मैथुन कहते हैं | मात्र स्त्री के साथ
सम्भोग करने वाले को स्त्री निषेवक कहते हैं न की मैथुन साधक | मैथुन परम तत्व है
जो सृष्टि स्थिति तथा संहार का कारण है | सुदुर्लभ ब्रह्म ज्ञान की सिद्धि मैथुन से हीं होती है | मैथुन
का गुह्य अर्थ समाधि है जिस अवस्था में योगी ईश्वर की स्तुति तथा सृष्टि और संहार के
चिन्तन में अपने को भी भूल जाता है |
इति
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