हम नित्य शुद्ध ,
बुद्ध चेतना हैं इस भाव को जगाने पर उस परमात्मा की झलक मिलने लगती है | चेतना जो
सर्वव्यापी है सर्वत्र है नित्य है हर क्षण है | इन्द्रियों में लीन होने के कारण
हमे इसका भान नहीं होता | हर वक्त बाहर की और मन घूमता रहता है भागता रहता है बाहर
हीं बाहर कुछ खोजता रहता है जबकि जिसे वह मन खोज रहा है वह भीतर है | है तो वह
बाहर भी किन्तु उसे पाना हो अगर तो अपने भीतर स्वयं से शुरुआत करना पड़ेगा | ठीक
वैसे हीं जैसे अगर एक विशाल वृक्ष पर हमें चढना हो तब हमे उसके जड़ या तने के तरफ
से चढना होगा न की पत्तों शाखाओं को पकड कर | जड़ हम हीं है स्वयं इसलिए शुरुआत
स्वयं से जो चीज अपने भीतर हीं मौजूद है तो बाहर से शुरुआत करना कहाँ की बुद्धिमता
है और इससे हासिल भी कुछ नहीं होता मन सिर्फ भटक भटक कर दुखी हो जाता है स्वयं को
हीं पीड़ा देने लगता है |
तो आइये ध्यान में
उतरें
आराम से सुखासन में
बैठ जाएँ | निचे कोई आसन आदि बिछा लें |
रीढ़ की हड्डी सीधी
तनी हुई नहीं
आँखें बंद हों | दो
चार लम्बी गहरी साँसें ले कर छोड़ दें ! बिलकुल आहिस्ता आहिस्ता |
ध्यान को आज्ञा चक्र
( दोनों भौं के बीच में ) पर टिका दें |
तीन से पांच मिनट
बाद
ध्यान को आज्ञा चक्र
पर टिकाये हुए हीं
अपने सम्पूर्ण शरीर
को अपनी कल्पना में देखें |
तीन से पांच मिनट तक
भाव करते हुए अपने सम्पूर्ण शरीर को
कल्पना में उतार लें |
अब पांच मिनट बाद
कल्पना करें मेरा
शरीर सिर्फ हाड मांस हीं नहीं है |
मेरा सम्पूर्ण शरीर
शुद्ध चेतना से निर्मित है |
अपने शरीर के भीतर
स्थित चेतना को अनुभव करने की कोशिश करें |
नित्य इसी भाव में
रहें मेरा शरीर शुद्ध चेतना है और कुछ नहीं |
पन्द्रह से बीस मिनट
तक इस भाव की वर्षा कर दें अपने अंत:करण में |
भाव जितना गहराता
जाएगा शरीर हल्का और अपने भीतर प्रफ्फुलता मह्शूश
करेंगे आप |
पुन: ध्यान को आज्ञा
चक्र पर लायें तीन से पांच मिनट तक |
और अपने वातावरण के
प्रति अलर्ट होते हुए ध्यान से बाहर आ सकते हैं |
देखने में साधारण
यह ध्यान आपके जीवन को बदल सकता है | कर
के तो देखें |
ॐ ॐ ॐ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें