दही और केले का वह स्वाद !
परम श्रधेय देवरहा बाबा की अनेक लीलाएं समय समय
पर होती रहती है | जब तब पूज्य बाबा हृदय की गुप्त बातों को निकाल कर प्रत्यक्ष रख
देते थे | तब दर्शनार्थी आश्चर्य चकित रह
जाते थे | यों बाबा की ये चेष्टा बराबर रहती थी कि उनसे कोई चमत्कार न हो , किन्तु
कस्तूरी की सुरभि क्या छुपाये छुपती है ? सूरज कब तक ज्योति को बादलों की ओट में छुपा कर रख सकता है |
बात
1959 की है | रमाकांत उपाध्याय , पुलिस सब इंस्पेक्टर थे | वे चांदमारी के बाद
अपने एक मित्र के साथ बाबा के दर्शनार्थ काशी में अस्सी घाट के उस पार मंच के पास
उपस्थित हुए | उपदेशादि में काफी विलम्ब हो गया | जोरों की भूख लगी थी | दोनों मन
हीं मन छुट्टी पाने की अभिलाषा कर रहें थे
| इसी बिच बाबा के मुखारविंद से प्रेमपूर्ण वाणी निकली- “ बच्चा बहुत भूखे दिखाई
देते हो | जाओ यह प्रसाद रेत पर बैठ कर खा लो | जो बचे वह गंगा जी में प्रवाहित कर
देना |”
प्रसाद
के रूप में महराज जी ने एक मटका दही और चार दर्जन केले उन लोगों को दिए | रमाकांत
जी स्मारिका के पृष्ठ 48 पर इस संस्मरण के
साथ लिखा है ‘आज तक अपने जीवन में वैसे दही और केले का स्वाद नहीं मिला |’ कैसे
मिलता वह स्वाद ? बाबा की कृपा से सना हुआ प्रसाद तो भगवान का प्रसाद है , उससे
सांसारिक स्वादों की तुलना क्या हो सकती है |
बाबा
सबके मन की बात जानते थे | वे अन्तर्यामी थे | आज भी सच्चे हृदय से उन्हें पुकार
कर तो देखो वे सहाय होंगे |
देवरहा
बाबा के चरणों में सादर प्रणाम _/\_
साभार
: ब्रजकिशोर जी के पुस्तक से प्राप्त
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